15 साल का था, उसके पिता का निधन हो गया था। वह, उसका भाई और मां सिर्फ
420 रु. मासिक की पेंशन पर निर्भर थे। उनको झोपड़ी में रहना पड़ा। उसमें
न बिजली थी। न ही पानी।
वह स्ट्रीट लाइट में पढ़ता था। उसके परिजनों ने उसकी मां से कल्याण को
टाइपिंग सीखने को कहा ताकि वह कुछ कमा सके। लेकिन मां ने इंकार कर दिया
और कल्याण की बेहतर तालीम पर ध्यान दिया। मां की दृढ़ता के कारण कल्याण
की पढ़ाई सुनिश्चित हो सकी।जब उससे पूछा कि परिवार कैसे चला। तो उसका
जवाब था हमने हालातों से समझौता कर लिया था। कई मौकों पर उसने मां से कहा
कि एक दिन मैं तुझको इतना पैसा दूंगा कि तू सोच भी नहीं सकेगी कि इसका
क्या करे। कल्याण को इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिल गया।
कॉलेज में पढ़ाई के दौरान कई मौकों पर उसके पास खाने के लिए दूसरे
छात्रों पर निर्भर रहना होता था, ताकि किसी तरह से पेट भर सके। अंतिम
सेमेस्टर की परीक्षा के पहले उसने दिन भर खाना नहीं खाया और परीक्षा खत्म
होने पर बेहोश हो गया।
कॉलेज से ग्रेजुएशन के बाद टीसीएस में सिलेक्शन हो गया। उसे टीसीएस के
मुंबई ऑफिस में पहुंचना था। जब वह पहले दिन ऑफिस गया तो चप्पल पहनकर गया
था। उसके मैनेजर ने उसे डांटा और कहा कि कल से जूते पहनकर आना। इस पर
कल्याण ने कहा मैं नहीं पहन सकता। मैनेजर ने फिर डांटा तो उसने कहा कि
अभी मेरी हालत जूते खरीदने तक की नहीं है। मैनेजर ने पूछा कि तुम कहां रह
रहे हो, कल्याण ने कहा कि दादर रेलवे स्टेशन। मैनेजर तब तक भीतर से हिल
चुका था।
उसने एक माह की सैलेरी कल्याण को एडवांस में दी और रहने की व्यवस्था भी
की। इस एडवांस से कल्याण ने एक जोड़ जूते लिए और 1500 रु. मां को भेजकर
अपना वादा पूरा किया। बेहद कम समय में उसने वॉलमार्ट, अमेजन और अन्य
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए काम किया।
आज कल्याण एक बड़ी अमेरिकी कंपनी में सीओओ है और अमेरिका में बस चुका है।
यह जानना बेहद इस्पायरिंग है कि कल्याण जैसे लोग बुरा दौर देखते हुए और
मजबूत हो जाते हैं। बुरा समय कभी खत्म होता नहीं, लेकिन मजबूत लोग पार कर
ही जाते हैं। मैंने अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुना है कि कुछ पाने के
लिए कुछ खोना पड़ता है, लेकिन मेरा मानना है कि कुछ पाने के लिए कुछ करना
पड़ता है।
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