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  1. कहानी है यह हिन्दुस्तान की।बहुत समय पहले की बात है एक भिश्ती था। उसके
    पास दो घडे थे। उन घडों को उसने एक लम्बे डंडे के दो किनारों से बांधा
    हुआ था।एक घडा था साबुत और सुन्दर परन्तु दूसरे घडे में दरार थी।

    भिश्ती हर सुबह नदी तट पर जा कर दोनों घडों में पानी भरता और फिर शुरू
    होता उसका लम्बा सफर ऊंची पहाडी चढ क़र मालिक के घर तक । जब तक वह वहां
    पहुंचता टूटे हुए घडे में से आधा पानी रास्ते में ही बह चुका होता जबकि
    साबुत घडे में पूरा पानी होता।

    बहुत समय तक ऐसे ही चलता रहा । मालिक के घर तक डेढ घडा पानी ही पहुंचता
    था।साबुत घडे क़ो अपने पर बहुत घमंड था। उसकी बनावट बहुत सुन्दर थी और वह
    काम में भी पूरा आता था । टूटे हुए घडे क़ो अपनी बेबसी पर आंसू आते । वह
    उदास और दुखी रहता क्योंकि वह अधूरा था। उसे अपनी कमी का एहसास था। वह
    जानता था कि जितना काम उसे करना चाहिये वह उससे आधा ही कर पाता है।

    एक दिन टूटा हुआ घडा अपनी नाकामयाबी को और सहन नहीं कर पाया और वह भिश्ती
    से बोला ''मुझे अपने पर शर्म आती है मै अधूरा हूं। मैं आपसे क्षमा
    मांगना चाहता हूं।'' भिश्ती ने उससे पूछा ''तुम्हें किस बात की शर्म
    है।'' ''आप इतनी मेहनत से पानी लाते है और मै उसे पूरा नहीं रोक पाता
    आधा रास्ते में ही गिर जाता है । मेरी कमी के कारण मालिक को आप पूरा पानी
    नहीं दे पाते'' दरार वाला घडा बोला।

    भिश्ती को टूटे हुए घडे पर बहुत तरस आया। उसके हृदय में दया और करूणा थी।
    उसने प्यार से टूटे हुए घडे से कहा ''आज जब हम पानी लेकर वापस आयेंगे तब
    तुम रास्ते में खुबसूरत फूलों को ध्यान से देखना। चढते सूरज की रोशनी में
    यह फूल कितने अच्छे लगते है।''और उस दिन टूटे हुए घडे ने देखा कि सारे
    रास्ते के किनारे बहुत ही सुन्दर रंगबिरंगे फूल खिले हुए थे।

    उन लाल नीले पीले फूलों को देख कर उसका दुखी मन कुछ समय के लिये अपना दुख
    भूल गया। परन्तु मालिक के घर पहुंचते ही वह फिर उदास हो गया। उसे बुरा
    लगा कि फिर इतना पानी टपक गया था।नम्रतापूर्वक टूटे हुए घडे ने फिर
    भिश्ती से माफी मांगी।

    तब वह भिश्ती टूटे हुए घडे से बोला ''क्या तुमने ध्यान दिया कि रास्ते
    में वह सुन्दर फूल केवल तुम्हारी तरफ वाले रास्ते पर ही खिले हुए थे। मैं
    तुम्हारी इस कमजोरी के बारे में जानता था और मैने इसका फायदा उठाया। मैने
    फूलों के बीज केवल तुम्हारी तरफ ही बोये थे और हर सुबह जब हम इस रास्ते
    से गुजरते तो तुम इन पौधों को पानी देते थे। पिछले दो सालों से यही फूल
    मालिक के घर की शोभा बढाते हैं। तुम जैसे भी हो बहुत काम के हो अगर तुम न
    होते तो मालिक का घर इन सुन्दर फूलों से सुसज्जित न होता।''

    ईश्वर ने हम सब में कुछ कमियां दी है। हम सब उस टूटे अधूरे घडे ज़ैसे हैं
    पर हम चाहें तो हम इन कमजोरियों पर काबू पा सकते हैं।हमें कभी भी अपनी
    कमियों से घबराना नहीं चाहिये हमें एहसास होना चाहिये कि हममें क्या
    कमियां हैं और फिर उन कमजोरियों के बावाजूद हम अपने चारों तरफ खूबसूरती
    फैला सकते हैं खुशियां बांट सकते हैं। अपनी कमी में ही अपनी मजबूती ढूंढ
    सकते हैं।

  2. 1. वस्तुए तुम्हे छोड़ दे तो मौत है और तुम वस्तुओ को छोड़ दो तो मोक्ष है.

    2. जो बार बार आये वो मौत है और जो एक बार आये वो मोक्ष.

    3. मौत भोगी को आती है और मोक्ष योगी को होता है.

    4. भोगी को मौत छोड़ती नही है और योगी को मौत छेड़ती नही है.

    5. पुराने वस्त्र (शरीर) उतार कर नए वस्त्र धारण करना मौत है और पुराने
    वस्त्र उतार फेंकना और फिर नए वस्त्र धारण न करना मोक्ष है.

    6. मौत को मौत आ जाना ही मोक्ष है.

  3. सायंकाल का समय था | सभी पक्षी अपने अपने घोसले में जा रहे थे | तभी गाव
    कि चार ओरते कुए पर पानी भरने आई और अपना अपना मटका भरकर बतयाने बैठ गई |

    इस पर पहली ओरत बोली अरे ! भगवान मेरे जैसा लड़का सबको दे |उसका कंठ इतना
    सुरीला हें कि सब उसकी आवाज सुनकर मुग्ध हो जाते हें |

    इसपर दूसरी ओरत बोली कि मेरा लड़का इतना बलवान हें कि सब उसे आज के युग
    का भीम कहते हें |
    इस पर तीसरी ओरत कहाँ चुप रहती वह बोली अरे ! मेरा लड़का एक बार जो पढ़
    लेता हें वह उसको उसी समय कंठस्थ हो जाता हें |

    यह सब बात सुनकर चोथी ओरत कुछ नहीं बोली तो इतने में दूसरी ओरत ने कहा "
    अरे ! बहन आपका भी तो एक लड़का हें ना आप उसके बारे में कुछ नहीं बोलना
    चाहती हो" |

    इस पर से उसने कहाँ मै क्या कहू वह ना तो बलवान हें और ना ही अच्छा गाता हें |
    यह सुनकर चारो स्त्रियों ने मटके उठाए और अपने गाव कि और चल दी |

    तभी कानो में कुछ सुरीला सा स्वर सुनाई दिया | पहली स्त्री ने कहाँ "देखा
    ! मेरा पुत्र आ रहा हें | वह कितना सुरीला गान गा रहा हें |" पर उसने
    अपनी माँ को नही देखा और उनके सामने से निकल गया |

    अब दूर जाने पर एक बलवान लड़का वहाँ से गुजरा उस पर दूसरी ओरत ने कहाँ |
    "देखो ! मेरा बलिष्ट पुत्र आ रहा हें |" पर उसने भी अपनी माँ को नही देखा
    और सामने से निकल गया |

    तभी दूर जाकर मंत्रो कि ध्वनि उनके कानो में पड़ी तभी तीसरी ओरत ने कहाँ
    "देखो ! मेरा बुद्धिमान पुत्र आ रहा हें |" पर वह भी श्लोक कहते हुए वहाँ
    से उन दोनों कि भाति निकल गया |

    तभी वहाँ से एक और लड़का निकला वह उस चोथी स्त्री का पूत्र था | वह अपनी
    माता के पास आया और माता के सर पर से पानी का घड़ा ले लिया और गाव कि और
    गाव कि और निकल पढ़ा |

    यह देख तीनों स्त्रीयां चकित रह गई | मानो उनको साप सुंघ गया हो | वे
    तीनों उसको आश्चर्य से देखने लगी तभी वहाँ पर बैठी एक वृद्ध महिला ने
    कहाँ "देखो इसको कहते हें सच्चा हीरा "

    " सबसे पहला और सबसे बड़ा ज्ञान संस्कार का होता हें जो किसे और से नहीं
    बल्कि स्वयं हमारे माता-पिता से प्राप्त होता हें | फिर भले ही हमारे
    माता-पिता शिक्षित हो या ना हो यह ज्ञान उनके अलावा दुनिया का कोई भी
    व्यक्ति नहीं दे सकता हें

  4. बहुत समय पहले की बात है ,एक राजा को उपहार में किसी ने बाज के दो बच्चे
    भेंट किये । वे बड़ी ही अच्छी नस्ल के थे , और राजा ने कभी इससे पहले इतने
    शानदार बाज नहीं देखे थे।राजा ने उनकी देखभाल के लिए एक अनुभवी आदमी को
    नियुक्त कर दिया।

    जब कुछ महीने बीत गए तो राजा ने बाजों को देखने का मन बनाया , और उस जगह
    पहुँच गए जहाँ उन्हें पाला जा रहा था।

    राजा ने देखा कि दोनों बाज काफी बड़े हो चुके थे और अब पहले से भी शानदार
    लग रहे थे ।
    राजा ने बाजों की देखभाल कर रहे आदमी से कहा, " मैं इनकी उड़ान देखना
    चाहता हूँ , तुम इन्हे उड़ने का इशारा करो । "

    आदमी ने ऐसा ही किया।
    इशारा मिलते ही दोनों बाज उड़ान भरने लगे ,पर जहाँ एक बाज आसमान की
    ऊंचाइयों को छू रहा था , वहीँ दूसरा , कुछ ऊपर जाकर वापस उसी डाल पर आकर
    बैठ गया जिससे वो उड़ा था।
    ये देख , राजा को कुछ अजीब लगा. "क्या बात है जहाँ एक बाज इतनी अच्छी
    उड़ान भर रहा है, वहीँ ये दूसरा बाज उड़ना ही नहीं चाह रहा ?", राजा ने
    सवाल किया।

    " जी हुजूर , इस बाज के साथ शुरू से यही समस्या है , वो इस डाल को छोड़ता ही नहीं।"
    राजा को दोनों ही बाज प्रिय थे , और वो दुसरे बाज को भी उसी तरह उड़ना
    देखना चाहते थे।
    अगले दिन पूरे राज्य में ऐलान करा दिया गया कि जो व्यक्ति इस बाज को ऊँचा
    उड़ाने में कामयाब होगा, उसे ढेरों इनाम दिया जाएगा।

    फिर क्या था , एक से एक विद्वान् आये और बाज को उड़ाने का प्रयास करने लगे
    , पर हफ़्तों बीत जाने के बाद भी बाज का वही हाल था, वो थोडा सा उड़ता और
    वापस डाल पर आकर बैठ जाता।

    फिर एक दिन कुछ अनोखा हुआ , राजा ने देखा कि उसके दोनों बाज आसमान में उड़
    रहे हैं। उन्हें अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने तुरंत उस
    व्यक्ति का पता लगाने को कहा जिसने ये कारनामा कर दिखाया था।
    वह व्यक्ति एक किसान था। अगले दिन वह दरबार में हाजिर हुआ। उसे इनाम में
    स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने के बाद राजा ने कहा , " मैं तुमसे बहुत
    प्रसन्न हूँ , बस तुम इतना बताओ कि जो काम बड़े-बड़े विद्वान् नहीं कर पाये
    वो तुमने कैसे कर दिखाया।"

    "मालिक ! मैं तो एक साधारण सा किसान हूँ , मैं ज्ञान की ज्यादा बातें
    नहीं जानता , मैंने तो बस वो डाल काट दी जिसपर बैठने का बाज आदि हो चुका
    था, और जब वो डाल ही नहीं रही तो वो भी अपने साथी के साथ ऊपर उड़ने लगा। "

    दोस्तों, हम सभी ऊँचा उड़ने के लिए ही बने हैं। लेकिन कई बार हम जो कर रहे
    होते है उसके इतने आदि हो जाते हैं कि अपनी ऊँची उड़ान भरने की , कुछ बड़ा
    करने की काबिलियत को भूल जाते हैं।

    यदि आप भी सालों से किसी ऐसे ही काम में लगे हैं ... जो आपके सही क्षमता
    के मुताबिक नहीं है तो ,..... एक बार ज़रूर सोचिये कि कहीं आपको भी उस डाल
    को काटने की ज़रुरत तो नहीं जिसपर आप बैठे हुए हैं ?

  5. index post

    Friday, June 20, 2014

    कुछ क्षण प्रतीक्षा कीजिए...


  6. बिच्छू

    Saturday, June 14, 2014

    बिच्छू आर्थ्रोपोडा (Arthropoda) संघ का साँस लेनेवाला ऐरैक्निड (मकड़ी)
    है। इसकी अनेक जातियाँ हैं, जिनमें आपसी अंतर बहुत मामूली हैं। यहाँ बूथस
    (Buthus) वंश का विवरण दिया जा रहा है, जो लगभग सभी जातियों पर घटता है।

    यह साधारणतः उष्ण प्रदेशों में पत्थर आदि के नीचे छिपे पाये जाते हैं और
    रात्रि में बाहर निकलते हैं। बिच्छू की लगभग 2,000 जातियाँ होती हैं जो
    न्यूजीलैंड तथा अंटार्कटिक को छोड़कर विश्व के सभी भागों में पाई जाती
    हैं। इसका शरीर लंबा चपटा और दो भागों- शिरोवक्ष और उदर में बटा होता है।
    शिरोवक्ष में चार जोड़े पैर और अन्य उपांग जुड़े रहते हैं। सबसे नीचे के
    खंड से डंक जुड़ा रहता है जो विष-ग्रंथि से संबद्ध रहता है। शरीर काइटिन
    के बाह्यकंकाल से ढका रहता है। इसके सिर के ऊपर दो आँखें होती हैं। इसके
    दो से पाँच जोड़ी आँखे सिर के सामने के किनारों में पायी जाती हैं।

    बिच्छू साधारणतः उन क्षेत्रों में रहना पसन्द करते हैं जहां का तापमान
    200 से 350 सेंटीग्रेड के बीच रहता हैं। परन्तु ये जमा देने वाले शीत तथा
    मरूभूमि की गरमी को भी सहन कर सकते हैं।

    अधिकांश बिच्छू इंसान के लिए हानिकारक नहीं हैं। वैसे, बिच्छू का डंक
    बेहद पीड़ादायक होता है और इसके लिए इलाज की जरूरत पड़ती है। शोधकर्ताओं
    के मुताबिक बिच्छू के जहर में पाए जाने वाले रसायन क्लोरोटोक्सिन को अगर
    टयूमर वाली जगह पर लगाया जाए तो इससे स्वस्थ और कैंसरग्रस्त कोशिकाओं की
    पहचान आसानी से की जा सकती है। वैज्ञानिकों का दावा है कि क्लोरोटोक्सिन
    कैंसरग्रस्त कोशिकाओं पर सकारात्मक असर डालता है। यह कई तरह के कैंसर के
    इलाज में कारगर साबित हो सकता है। उनका मानना है कि बिच्छू का जहर कैंसर
    का ऑपरेशन करने वाले सर्जनों के लिए मददगार साबित हो सकता है। उन्हें
    कैंसरग्रस्त और स्वस्थ कोशिकाओं की पहचान करने में आसानी होगी।

    बिच्छू का शरीर

    बिच्छू का शरीर लंबा, संकरा और परिवर्ती रंगों का होता है। शरीर दो भागों
    का बना होता है, एक छोटा अग्र भाग शिरोवक्ष या अग्रकाय (cephalothorax,
    prosoma) और दूसरा लंबा पश्चभाग, उदर (abdomen, opisthosoma) है।
    शिरोवक्ष एक पृष्ठवर्म (carapace) से पृष्ठत: आच्छादित रहता है, जिसके
    लगभग मध्य में एक जोड़ा बड़ी आँखें और उसके अग्र पार्श्विक क्षेत्र में
    अनेक जोड़ा छोटी आँखें होती हैं। उदर का अगला चौड़ा भाग मध्यकाय
    (Mesosoma) सात खंडों का बना होता है। प्रत्येक खंड ऊपर पृष्ठक (tergum)
    से और नीचे उरोस्थि (sternum) से आवृत होता है। ये दोनों पार्श्वत: एक
    दूसरे से कोमल त्वचा द्वारा जुड़े होते हैं।

    पश्चकाय (metasoma) उदर का पश्च, सँकरा भाग है जिसमें पाँच खंड होते हैं।
    जीवित प्राणियों में पश्चकाय का अंतिम भाग, जो पुच्छ है, स्वभावत: पीठ पर
    मुड़ा होता है। इसके अंतिम खंड से अंतस्थ उपांग (appendage) संधिबद्ध
    (articulated) होता है और पुच्छीय मेरुदंड (caudal spine) आधार पर फूला
    और शीर्ष पर, जहाँ विषग्रंथियों की वाहिनियाँ खुलती हैं, नुकीला होता है।
    अंतिम खंड के अधर पृष्ठ (ventral surface) पर डंक के ठीक सामने गुदा
    द्वार स्थित होता है। मुख एक छोटा सा छिद्र है, जो अग्रकाय के अगले सिरे
    पर अधरत: स्थिर होता है। मुख पर लैब्रम (labrum) छाया रहता है।

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  7. [जन्म 5 जून 1723 (रूस) – निधन 17 जुलाई 1790 (न्यूयॉर्क)]

    'द वेल्थ ऑफ नेशंस' के साथ एडम स्मिथ ने खुद को समकालीन आर्थिक सोच के
    प्रमुख के तौर पर स्थापित कर लिया था। एडम स्मिथ की सोच की यही ऊर्जा
    19वीं सदी में डेविड रिकार्डो और कार्ल मार्क्स और फिर 20वीं सदी में
    कीन्स और फ्रीडमैन तक देखने को मिली।

    स्मिथ का जन्म स्कॉटलैंड के एक छोटे से गांव कर्क हैडली में हुआ था। 14
    वर्ष की उम्र में स्कॉलरशिप (जैसा कि उन दिनों प्रचलन में था) पर
    यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लास्गो में दाखिले से पहले तक उनकी देखभाल विधवा मां ने
    की। बाद में उन्होंने ऑक्सफोर्ड के बेलियल कॉलेज में दाखिला ले लिया। जब
    वे स्नातक हुए तो उनके पास यूरोपियन साहित्य का अच्छा खासा ज्ञान था और
    और साथ ही था अंग्रेजी स्कूलों के लिए एक स्थायी तिरस्कार भाव। वे घर
    लौटे और कई पसंद किए गए लेक्चरों की सीरीज के बाद उन्होंने ग्लास्गो
    यूनिवर्सिटी में 1751 में 'फर्स्ट चेयर ऑफ लॉजिक' और फिर अगले साल (1752)
    में 'चेयर ऑफ मॉरल फिलासॉफी' की स्थापना की। 1764 में शिक्षा जगत छोड़कर
    वो यंग ड्यूक ऑफ बुस्ल्यूच को ट्यूशन देने लगे। दो साल तक स्मिथ ने पूरे
    दो साल फ्रांस में रहने और वहां घूमने में बिताए। वे इस दौरान
    स्विट्जरलैंड भी गए। यह एक ऐसा अनुभव था जिसने स्मिथ को उनके समकालीन
    वोल्तेयर, जीनजैस रोस्यू, फ्रैंकॉयस वेसने और आयनरॉबर्टजैस टरगट के
    संपर्क में ला दिया।

    ड्यूक की सेवा से मिली पेंशन मिलने के बाद स्मिथ सेवानिवृत्त होकर अपने
    जन्म स्थान कर्क हैडली लौटकर 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' लिखने में जुट गए। यह
    उसी वर्ष 1776 में प्रकाशित हुई जब अमेरिका में स्वाधीनता के घोषणा-पत्र
    पर हस्ताक्षर हुए थे। इसी साल उनके नजदीकी दोस्त डेविड ह्यूम का भी निधन
    हुआ। 1778 में कमिश्नर ऑफ कस्टम्स नियुक्त किया गया। इस नये काम ने उनको
    उलझन में डाल दिया। अब उन पर स्मगलिंग पर अंकुश की जिम्मेदारी थी, जबकि
    स्मगलिंग को अपनी किताब 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' में वे 'अस्वाभाविक' कानूनों
    के कारण जायज करार दे चुके थे। एडम स्मिथ ने शादी नहीं की। 19 जुलाई 1790
    को उनका एडिनबर्ग में निधन हो गया।

    आज स्मिथ की ख्याति उनकी इस व्याख्या के कारण है कि मुक्त बाजार वाली
    अर्थव्यवस्था में कैसे तार्किक स्वार्थ भी आर्थिक तरक्की का कारण बन सकता
    है। ये उन लोगों को चौंका सकता है जो स्मिथ को उनके नीति शास्त्र और भलाई
    पर आधारित उनके शुरूआती काम के लिए जानते हैं। वे तो उन्हें एक निष्ठुर
    व्यक्तिवादी मानते थे। वास्तविकता में यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लास्गो में स्मिथ
    ने जिन विषयों पर लेक्चर दिए जैसे- प्राकृतिक धर्मशास्त्र (नेचुरल
    थियालॉजी), नीतिशास्त्र, न्यायशास्त्र और अर्थशास्त्र। ये खुलासा उस
    दौरान उनके छात्र रह चुके जॉन मिलर ने किया है।

    'थ्योरी ऑफ मोरल सेंटीमेंट्स' में स्मिथ लिखते हैं, 'इंसान को कितना भी
    स्वार्थी मान लिया जाए, लेकिन फिर भी उसके स्वभाव में ऐसे कुछ मतों के
    सबूत तो मिल ही जाते हैं, जो उसे दूसरों के हितों के लिए भी सोचने का
    मौका देते हैं और उसमें दूसरों की खुशी की अनिवार्यता का भाव भर देती
    हैं, हालांकि इससे उसे निजी तौर पर कोई फायदा तो नहीं होता, लेकिन दूसरों
    को खुश देखने का आनंद मिलता है।' दूसरी तरफ, निजी हितों को लेकर स्मिथ के
    विचारों में मृदुता भी देखने को मिलती है। वे इस विचार को नहीं मानते कि
    स्वप्रेम 'एक ऐसा मत है जो किसी भी सूरत में पवित्र नहीं हो सकता।' स्मिथ
    का तर्क था कि जिंदगी की मुश्किलें बढ़ जाएंगी अगर, 'हमारा स्नेह, जो
    हमारे मूल स्वभाव का हिस्सा है, हमारे व्यवहार को अधिकांशतया प्रभावित कर
    सकता है, किसी भी मौके पर पवित्र न लगे या इसे हर किसी से तारीफ ही
    मिले।'

    स्मिथ के लिए दयाभाव और निजी हित एक दूसरे के विरोधी नहीं थे, वे तो पूरक
    थे। 'इंसान के पास अपने लोगों की मदद के मौके निरंतर उपलब्ध होते हैं,
    लेकिन ऐसा केवल परोपकार से ही करने की सोच व्यर्थ होगी।' यह खुलासा
    उन्होंने अपनी किताब 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' में किया है।

    धर्मार्थ कार्य जहां एक नेक काम है, केवल इसी से गुजारा नहीं हो सकता। इस
    कमी को निजी हितों की पूर्ति ही पूरा कर सकती है। स्मिथ के मुताबिक,
    'किसी कसाई, बीयर बनाने वाले या बेकरी वाले के परोपकार से हम रोज रात का
    खाना हासिल करने की अपेक्षा नहीं कर सकते, बल्कि तभी कर सकते हैं जब वे
    अपने हितों का सम्मान करें।'

    अपने श्रम से पैसे कमाने वाला खुद का फायदा करता है। साथ ही वह बिना जाने
    समाज को भी फायदा पहुंचाता है। क्योंकि वह अपने श्रम का पैसा
    प्रतिस्पर्धी बाजार से कमाता है, वो दूसरों से बेहतर ऐसा काम करता है
    जिसके लिए उसे पैसा मिलता है। एडम स्मिथ की स्थायी परिकल्पना में,
    'उद्योग को उसकी कीमत के मुताबिक सक्षमता के साथ चलाने में उसका मकसद
    अपना लाभ होता है। साथ ही इसमें, अन्य कई मामलों की तरह उसे एक अनदेखे
    साथ से वह तरक्की मिल रही है, जो उसकी आकांक्षा में शामिल ही नहीं था।'

    'द वेल्थ ऑफ नेशंस' की पांच किताबों की सीरीज में किसी देश की समृद्धि और
    उसके स्वभाव का खुलासा किया गया है। स्मिथ का तर्क था कि समृद्धि का
    मुख्य कारण, श्रम का निरंतर बढ़ता विभाजन था। स्मिथ ने पिन का बहुचर्चित
    उदाहरण दिया था। उन्होंने बताया कि अगर 18 विशेषज्ञता वाले कामों में से
    प्रत्येक को किसी विशेष श्रमिक को दिया जाए तो 10 श्रमिक प्रतिदिन 48
    हजार पिनों का उत्पादन कर सकते हैं। औसत उत्पादनः 4800 पिन प्रति
    व्यक्ति प्रतिदिन। लेकिन श्रम का विभाजन मत कीजिए तो एक श्रमिक दिन भर
    में एक पिन भी बना ले तो बहुत है। सीरीज की पहली किताब इसी विषय पर
    केंद्रित है कि कैसे श्रमिक अपनी श्रमशक्ति का या अन्य संसाधनों का बेहतर
    इस्तेमाल कर सकते हैं। स्मिथ ने दावा किया कि एक व्यक्ति किसी संसाधन,
    जैसे जमीन या श्रमिक, का निवेश इसीलिए करता है, ताकि उसे बदले में ज्यादा
    से ज्यादा लाभ मिले। परिणामतः संसाधन का सभी तरह से इस्तेमाल समान लाभ
    (हर एक में मौजूद तुलनात्मक जोखिम के लिहाज से समायोजित) मिलना चाहिए।
    वरना स्थानांतरण देखने को मिलेगा।

    जॉर्ज स्टिगलर की राय में यह विचार ही आर्थिक सिद्धांत के मुख्य प्रमेय
    (प्रपोजिशन) के केंद्र में है। इसमें हैरानी की बात नहीं है. और फिर यह
    स्टिगलर के उस दावे से भी मेल खाता है कि अर्थशास्त्र में किसी भी सोच के
    जनक को उसका श्रेय नहीं मिलता, स्मिथ के विचार मौलिक नहीं थे। 1766 में
    फ्रांसीसी अर्थशास्त्री टरगट इसी तरह के विचार व्यक्त कर चुके थे। स्मिथ
    ने समान लाभ की अपनी सोच के बूते इस बात का खुलासा कर दिया कि क्यों
    लोगों को अलग-अलग वेतन मिलता है। स्मिथ के अनुसार मुश्किल से सीखे जाने
    वाले काम के लिए मिलने वाला वेतन भी ज्यादा होगा, क्योंकि ज्यादा वेतन की
    संभावना नहीं होने पर लोग उस काम को सीखने में उत्साह ही नहीं दिखाएंगे।
    उनके विचारों ने ही मानव पूंजी की आधुनिक सोच को साकार किया। साथ ही उन
    लोगों को भी ज्यादा वेतन मिलेगा जो गंदे और ज्यादा जोखिम वाले कामों को
    करेंगे- जैसे कोयला खदानों में काम या कसाई का काम या फिर जल्लाद का काम
    जहां एक घृणित काम करना पड़ता है। संक्षेप में, काम में अंतर की भरपाई
    वेतन में अंतर से की जाती है। आधुनिक अर्थशास्त्री स्मिथ की इस सोच को
    'थ्योरी ऑफ कंपनसेटिंग वेज डिफरेंशियल्स' का नाम देते हैं।

    स्मिथ ने गणना के अर्थशास्त्र (न्यूमरेट इकानॉमी) का इस्तेमाल न केवल पिन
    के उत्पादन या कसाई और जल्लाद के वेतनों में अंतर को समझाने के लिए किया,
    बल्कि उनका उद्दे्श्य उस वक्त के कुछ राजनीतिक मुद्दों की ओर ध्यान
    दिलाना भी था। 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' की 1776 में प्रकाशित चौथी किताब में
    स्मिथ ग्रेट ब्रिटेन को बताते हैं कि अमेरिकी उपनिवेशों पर कब्जा फायदे
    का सौदा नहीं है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जरूरत से ज्यादा महंगे होने के
    कारणों के खुलासे से स्मिथ की आंकड़ों से खेलने की महारत का तो पता चलता
    ही है, साथ ही वह यह भी बताता है कि अर्थशास्त्र के बहुत सामान्य से
    इस्तेमाल से भी क्रांतिकारी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं

    एक महान साम्राज्य की स्थापना का मुख्य उद्देश्य था ऐसे उपभोक्ता देश
    तैयार करना जो हमारे विभिन्न उत्पादकों से उनके द्वारा बनाए जा रहे हर
    सामान को खरीदें। हमारे उत्पादकों का एकाधिकार सुरक्षित रखने के लिए
    कीमतों में थोड़े से इजाफे का खामियाजा साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए
    अंततः घरेलू उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ गया। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए
    पिछली दो जंग में 1.7 करोड़ से ज्यादा लोगों को काम पर लगाया गया और इससे
    पहले की जंगों में भी ऐसा होता रहा है। इस कर्ज का ब्याज ही न केवल समूचे
    असाधारण लाभ से ज्यादा है, जो औपनिवेशिक व्यापार पर एकाधिकार से कमाया
    गया था बल्कि पूरे कारोबार के मूल्य, पूरे सामान के मूल्य से भी ज्यादा
    है जो हर साल उपनिवेशों को आयात किया गया।

    स्मिथ हमेशा से वाणिज्यवाद के खिलाफ थे, जिसमें व्यापार अधिशेष (ट्रेड
    सरप्लस) को इस त्रुटिपूर्ण सोच के साथ कायम रखा जाता है कि इससे धन में
    इजाफा होता है। उनका तर्क था, कि व्यापार का मूल फायदा यह था कि इसने
    अतिरिक्त सामान के लिए नये बाजार खोल दिए और विदेशों से आने वाली चीजें
    भी घर पर सस्ती मिलने लगीं। इसके साथ ही स्मिथ ने मुक्त व्यापार के
    समर्थक अर्थशास्त्रियों की एक पीढ़ी के लिए रास्ता सा खोल दिया, जिस पर चल
    कर अगली पीढ़ी में डेविड रिकार्डो और जॉन स्टुअर्ट की तुलनात्मक लाभ के
    सिद्धांत रचे गए।

    कई बार एडम स्मिथ को एक ऐसे अर्थशास्त्री के तौर पर बताया गया जो आर्थिक
    जगत में सरकार की कोई भूमिका ही नहीं चाहते, जबकि वास्तविकता में उनका
    मानना था कि इसमें सरकार की भूमिका बहुत अहम है। मुक्त बाजार में यकीन
    रखने वाले अधिकांश आधुनिक विचारकों की तरह स्मिथ का भी यह मानना था कि
    सरकार को अनुबंधों के लिए दबाव बनाना चाहिए और नई सोच और आविष्कारों को
    प्रोत्साहित करने के लिए पेटेंट और कॉपीराइट भी देना चाहिए। उनका यह भी
    मानना था कि सरकार को सड़क और पुलों जैसे कामों को अपने पास ही रखना
    चाहिए, जो उनकी राय में निजी लोग अच्छी तरह से मुहैया नहीं करा पाएंगे।
    मजे की बात यह है कि वे यह भी चाहते थे कि इन सुविधाओं का इस्तेमाल करने
    वालों से इस आधार पर वसूली की जानी चाहिए कि उन्होंने इसका कितना
    इस्तेमाल किया। यानी ज्यादा इस्तेमाल करने वाले से ज्यादा वसूली। स्मिथ
    और आधुनिक विचारकों में एक मुक्त बाजार को लेकर सबसे बड़ा अंतर यह है कि
    स्मिथ प्रतिकार दरों (रिटेलियटरी टेरिफ्स) के समर्थक थे।

    उनकी राय में दूसरे देशों की ऊंची दरों को कम करने में प्रतिकार करने का
    अच्छा असर होगा। उन्होंने लिखा था, 'एक अच्छे विदेशी बाजार की बेहतरी,
    कुछ समय के लिए कुछ सामान विशेष के लिए ज्यादा कीमत चुकाने की अस्थायी
    असुविधा की क्षतिपूर्ति कर देगी।' स्मिथ के कुछ विचार उनकी कल्पनाशक्ति
    की व्यापकता को प्रदर्शित करते हैं। आज वाउचरों और शालेय चयन कार्यक्रमों
    (स्कूल चॉइस प्रोग्राम्स) को सार्वजनिक शिक्षा के ताजातरीन सुधारों की
    संज्ञा दी जाती है। लेकिन एडम स्मिथ ने तो इस विषय की चर्चा 200 साल से
    भी ज्यादा पहले कर दी थी।

    अगर लाभार्थ संस्थानों पर निर्भर छात्रों को अपनी पसंद के कॉलेजों के चयन
    की छूट दी जाए तो इस आजादी से विभिन्न कॉलेजों में भी बेहतरी के लिए कुछ
    प्रतिस्पर्धा का भाव देखने को मिलेगा। इसके विपरीत हर एक कॉलेज से दूसरे
    कॉलेज जाने के इच्छुक छात्रों को रुकने पर मजबूर करने वाला कानून इस
    प्रतिस्पर्धा के भाव को समाप्त कर देगा।

    ऑक्सफोर्ड (1740-46) में अपने छात्र जीवन में आए अनुभवों ने, जहां वे
    शिकायत करते थे कि प्रोफेसरों ने पढ़ाने का नाटक तक करना छोड़ दिया है, एडम
    स्मिथ का हमेशा के लिए ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज से मोहभंग कर दिया था।
    स्मिथ का लेखन न केवल अर्थशास्त्र के विज्ञान की पड़ताल करता है, बल्कि यह
    देशों को अपने संसाधनों को समझने में एक पॉलिसी गाइड की तरह भी था। स्मिथ
    का मानना था कि खुली प्रतिस्पर्धा के माहौल में ही सर्वश्रेष्ठ आर्थिक
    विकास हो सकता है। एक ऐसा माहौल जहां सर्वव्यापी 'प्राकृतिक नियम' से
    तालमेल रखा जाता हो। चूंकि स्मिथ उनके काल तक के सबसे ज्यादा व्यवस्थित
    और व्यापक अध्ययनकर्ता थे उनकी आर्थिक सोच मान्य अर्थशास्त्र का आधार बन
    गई। और चूंकि किसी अन्य अर्थशास्त्री की तुलना में उनकी सोच ज्यादा काल
    तक टिकी रही, इसलिए एडम स्मिथ को अर्थशास्त्र के विज्ञान का आदि और अंत
    (अल्फा एंड ओमेगा) कहा जा सकता है।

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    एडम स्मिथ के चुनिंदा लेखन

    एन इन्वायरी इनटू दि नेचर एंड कॉजेस ऑफ दि वेल्थ ऑफ नेशंस, एडविन केनन
    द्वारा संपादित, 1976
    दि थ्योरी ऑफ मोरल सेंटीमेंट्स, डी.डी. रैफेल और ए.एल. मैकफी द्वारा संपादित, 1976

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  8. [जन्म 5 जून 1723 (रूस) – निधन 17 जुलाई 1790 (न्यूयॉर्क)]

    'द वेल्थ ऑफ नेशंस' के साथ एडम स्मिथ ने खुद को समकालीन आर्थिक सोच के
    प्रमुख के तौर पर स्थापित कर लिया था। एडम स्मिथ की सोच की यही ऊर्जा
    19वीं सदी में डेविड रिकार्डो और कार्ल मार्क्स और फिर 20वीं सदी में
    कीन्स और फ्रीडमैन तक देखने को मिली।

    स्मिथ का जन्म स्कॉटलैंड के एक छोटे से गांव कर्क हैडली में हुआ था। 14
    वर्ष की उम्र में स्कॉलरशिप (जैसा कि उन दिनों प्रचलन में था) पर
    यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लास्गो में दाखिले से पहले तक उनकी देखभाल विधवा मां ने
    की। बाद में उन्होंने ऑक्सफोर्ड के बेलियल कॉलेज में दाखिला ले लिया। जब
    वे स्नातक हुए तो उनके पास यूरोपियन साहित्य का अच्छा खासा ज्ञान था और
    और साथ ही था अंग्रेजी स्कूलों के लिए एक स्थायी तिरस्कार भाव। वे घर
    लौटे और कई पसंद किए गए लेक्चरों की सीरीज के बाद उन्होंने ग्लास्गो
    यूनिवर्सिटी में 1751 में 'फर्स्ट चेयर ऑफ लॉजिक' और फिर अगले साल (1752)
    में 'चेयर ऑफ मॉरल फिलासॉफी' की स्थापना की। 1764 में शिक्षा जगत छोड़कर
    वो यंग ड्यूक ऑफ बुस्ल्यूच को ट्यूशन देने लगे। दो साल तक स्मिथ ने पूरे
    दो साल फ्रांस में रहने और वहां घूमने में बिताए। वे इस दौरान
    स्विट्जरलैंड भी गए। यह एक ऐसा अनुभव था जिसने स्मिथ को उनके समकालीन
    वोल्तेयर, जीनजैस रोस्यू, फ्रैंकॉयस वेसने और आयनरॉबर्टजैस टरगट के
    संपर्क में ला दिया।

    ड्यूक की सेवा से मिली पेंशन मिलने के बाद स्मिथ सेवानिवृत्त होकर अपने
    जन्म स्थान कर्क हैडली लौटकर 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' लिखने में जुट गए। यह
    उसी वर्ष 1776 में प्रकाशित हुई जब अमेरिका में स्वाधीनता के घोषणा-पत्र
    पर हस्ताक्षर हुए थे। इसी साल उनके नजदीकी दोस्त डेविड ह्यूम का भी निधन
    हुआ। 1778 में कमिश्नर ऑफ कस्टम्स नियुक्त किया गया। इस नये काम ने उनको
    उलझन में डाल दिया। अब उन पर स्मगलिंग पर अंकुश की जिम्मेदारी थी, जबकि
    स्मगलिंग को अपनी किताब 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' में वे 'अस्वाभाविक' कानूनों
    के कारण जायज करार दे चुके थे। एडम स्मिथ ने शादी नहीं की। 19 जुलाई 1790
    को उनका एडिनबर्ग में निधन हो गया।

    आज स्मिथ की ख्याति उनकी इस व्याख्या के कारण है कि मुक्त बाजार वाली
    अर्थव्यवस्था में कैसे तार्किक स्वार्थ भी आर्थिक तरक्की का कारण बन सकता
    है। ये उन लोगों को चौंका सकता है जो स्मिथ को उनके नीति शास्त्र और भलाई
    पर आधारित उनके शुरूआती काम के लिए जानते हैं। वे तो उन्हें एक निष्ठुर
    व्यक्तिवादी मानते थे। वास्तविकता में यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लास्गो में स्मिथ
    ने जिन विषयों पर लेक्चर दिए जैसे- प्राकृतिक धर्मशास्त्र (नेचुरल
    थियालॉजी), नीतिशास्त्र, न्यायशास्त्र और अर्थशास्त्र। ये खुलासा उस
    दौरान उनके छात्र रह चुके जॉन मिलर ने किया है।

    'थ्योरी ऑफ मोरल सेंटीमेंट्स' में स्मिथ लिखते हैं, 'इंसान को कितना भी
    स्वार्थी मान लिया जाए, लेकिन फिर भी उसके स्वभाव में ऐसे कुछ मतों के
    सबूत तो मिल ही जाते हैं, जो उसे दूसरों के हितों के लिए भी सोचने का
    मौका देते हैं और उसमें दूसरों की खुशी की अनिवार्यता का भाव भर देती
    हैं, हालांकि इससे उसे निजी तौर पर कोई फायदा तो नहीं होता, लेकिन दूसरों
    को खुश देखने का आनंद मिलता है।' दूसरी तरफ, निजी हितों को लेकर स्मिथ के
    विचारों में मृदुता भी देखने को मिलती है। वे इस विचार को नहीं मानते कि
    स्वप्रेम 'एक ऐसा मत है जो किसी भी सूरत में पवित्र नहीं हो सकता।' स्मिथ
    का तर्क था कि जिंदगी की मुश्किलें बढ़ जाएंगी अगर, 'हमारा स्नेह, जो
    हमारे मूल स्वभाव का हिस्सा है, हमारे व्यवहार को अधिकांशतया प्रभावित कर
    सकता है, किसी भी मौके पर पवित्र न लगे या इसे हर किसी से तारीफ ही
    मिले।'

    स्मिथ के लिए दयाभाव और निजी हित एक दूसरे के विरोधी नहीं थे, वे तो पूरक
    थे। 'इंसान के पास अपने लोगों की मदद के मौके निरंतर उपलब्ध होते हैं,
    लेकिन ऐसा केवल परोपकार से ही करने की सोच व्यर्थ होगी।' यह खुलासा
    उन्होंने अपनी किताब 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' में किया है।

    धर्मार्थ कार्य जहां एक नेक काम है, केवल इसी से गुजारा नहीं हो सकता। इस
    कमी को निजी हितों की पूर्ति ही पूरा कर सकती है। स्मिथ के मुताबिक,
    'किसी कसाई, बीयर बनाने वाले या बेकरी वाले के परोपकार से हम रोज रात का
    खाना हासिल करने की अपेक्षा नहीं कर सकते, बल्कि तभी कर सकते हैं जब वे
    अपने हितों का सम्मान करें।'

    अपने श्रम से पैसे कमाने वाला खुद का फायदा करता है। साथ ही वह बिना जाने
    समाज को भी फायदा पहुंचाता है। क्योंकि वह अपने श्रम का पैसा
    प्रतिस्पर्धी बाजार से कमाता है, वो दूसरों से बेहतर ऐसा काम करता है
    जिसके लिए उसे पैसा मिलता है। एडम स्मिथ की स्थायी परिकल्पना में,
    'उद्योग को उसकी कीमत के मुताबिक सक्षमता के साथ चलाने में उसका मकसद
    अपना लाभ होता है। साथ ही इसमें, अन्य कई मामलों की तरह उसे एक अनदेखे
    साथ से वह तरक्की मिल रही है, जो उसकी आकांक्षा में शामिल ही नहीं था।'

    'द वेल्थ ऑफ नेशंस' की पांच किताबों की सीरीज में किसी देश की समृद्धि और
    उसके स्वभाव का खुलासा किया गया है। स्मिथ का तर्क था कि समृद्धि का
    मुख्य कारण, श्रम का निरंतर बढ़ता विभाजन था। स्मिथ ने पिन का बहुचर्चित
    उदाहरण दिया था। उन्होंने बताया कि अगर 18 विशेषज्ञता वाले कामों में से
    प्रत्येक को किसी विशेष श्रमिक को दिया जाए तो 10 श्रमिक प्रतिदिन 48
    हजार पिनों का उत्पादन कर सकते हैं। औसत उत्पादनः 4800 पिन प्रति
    व्यक्ति प्रतिदिन। लेकिन श्रम का विभाजन मत कीजिए तो एक श्रमिक दिन भर
    में एक पिन भी बना ले तो बहुत है। सीरीज की पहली किताब इसी विषय पर
    केंद्रित है कि कैसे श्रमिक अपनी श्रमशक्ति का या अन्य संसाधनों का बेहतर
    इस्तेमाल कर सकते हैं। स्मिथ ने दावा किया कि एक व्यक्ति किसी संसाधन,
    जैसे जमीन या श्रमिक, का निवेश इसीलिए करता है, ताकि उसे बदले में ज्यादा
    से ज्यादा लाभ मिले। परिणामतः संसाधन का सभी तरह से इस्तेमाल समान लाभ
    (हर एक में मौजूद तुलनात्मक जोखिम के लिहाज से समायोजित) मिलना चाहिए।
    वरना स्थानांतरण देखने को मिलेगा।

    जॉर्ज स्टिगलर की राय में यह विचार ही आर्थिक सिद्धांत के मुख्य प्रमेय
    (प्रपोजिशन) के केंद्र में है। इसमें हैरानी की बात नहीं है. और फिर यह
    स्टिगलर के उस दावे से भी मेल खाता है कि अर्थशास्त्र में किसी भी सोच के
    जनक को उसका श्रेय नहीं मिलता, स्मिथ के विचार मौलिक नहीं थे। 1766 में
    फ्रांसीसी अर्थशास्त्री टरगट इसी तरह के विचार व्यक्त कर चुके थे। स्मिथ
    ने समान लाभ की अपनी सोच के बूते इस बात का खुलासा कर दिया कि क्यों
    लोगों को अलग-अलग वेतन मिलता है। स्मिथ के अनुसार मुश्किल से सीखे जाने
    वाले काम के लिए मिलने वाला वेतन भी ज्यादा होगा, क्योंकि ज्यादा वेतन की
    संभावना नहीं होने पर लोग उस काम को सीखने में उत्साह ही नहीं दिखाएंगे।
    उनके विचारों ने ही मानव पूंजी की आधुनिक सोच को साकार किया। साथ ही उन
    लोगों को भी ज्यादा वेतन मिलेगा जो गंदे और ज्यादा जोखिम वाले कामों को
    करेंगे- जैसे कोयला खदानों में काम या कसाई का काम या फिर जल्लाद का काम
    जहां एक घृणित काम करना पड़ता है। संक्षेप में, काम में अंतर की भरपाई
    वेतन में अंतर से की जाती है। आधुनिक अर्थशास्त्री स्मिथ की इस सोच को
    'थ्योरी ऑफ कंपनसेटिंग वेज डिफरेंशियल्स' का नाम देते हैं।

    स्मिथ ने गणना के अर्थशास्त्र (न्यूमरेट इकानॉमी) का इस्तेमाल न केवल पिन
    के उत्पादन या कसाई और जल्लाद के वेतनों में अंतर को समझाने के लिए किया,
    बल्कि उनका उद्दे्श्य उस वक्त के कुछ राजनीतिक मुद्दों की ओर ध्यान
    दिलाना भी था। 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' की 1776 में प्रकाशित चौथी किताब में
    स्मिथ ग्रेट ब्रिटेन को बताते हैं कि अमेरिकी उपनिवेशों पर कब्जा फायदे
    का सौदा नहीं है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जरूरत से ज्यादा महंगे होने के
    कारणों के खुलासे से स्मिथ की आंकड़ों से खेलने की महारत का तो पता चलता
    ही है, साथ ही वह यह भी बताता है कि अर्थशास्त्र के बहुत सामान्य से
    इस्तेमाल से भी क्रांतिकारी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं

    एक महान साम्राज्य की स्थापना का मुख्य उद्देश्य था ऐसे उपभोक्ता देश
    तैयार करना जो हमारे विभिन्न उत्पादकों से उनके द्वारा बनाए जा रहे हर
    सामान को खरीदें। हमारे उत्पादकों का एकाधिकार सुरक्षित रखने के लिए
    कीमतों में थोड़े से इजाफे का खामियाजा साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए
    अंततः घरेलू उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ गया। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए
    पिछली दो जंग में 1.7 करोड़ से ज्यादा लोगों को काम पर लगाया गया और इससे
    पहले की जंगों में भी ऐसा होता रहा है। इस कर्ज का ब्याज ही न केवल समूचे
    असाधारण लाभ से ज्यादा है, जो औपनिवेशिक व्यापार पर एकाधिकार से कमाया
    गया था बल्कि पूरे कारोबार के मूल्य, पूरे सामान के मूल्य से भी ज्यादा
    है जो हर साल उपनिवेशों को आयात किया गया।

    स्मिथ हमेशा से वाणिज्यवाद के खिलाफ थे, जिसमें व्यापार अधिशेष (ट्रेड
    सरप्लस) को इस त्रुटिपूर्ण सोच के साथ कायम रखा जाता है कि इससे धन में
    इजाफा होता है। उनका तर्क था, कि व्यापार का मूल फायदा यह था कि इसने
    अतिरिक्त सामान के लिए नये बाजार खोल दिए और विदेशों से आने वाली चीजें
    भी घर पर सस्ती मिलने लगीं। इसके साथ ही स्मिथ ने मुक्त व्यापार के
    समर्थक अर्थशास्त्रियों की एक पीढ़ी के लिए रास्ता सा खोल दिया, जिस पर चल
    कर अगली पीढ़ी में डेविड रिकार्डो और जॉन स्टुअर्ट की तुलनात्मक लाभ के
    सिद्धांत रचे गए।

    कई बार एडम स्मिथ को एक ऐसे अर्थशास्त्री के तौर पर बताया गया जो आर्थिक
    जगत में सरकार की कोई भूमिका ही नहीं चाहते, जबकि वास्तविकता में उनका
    मानना था कि इसमें सरकार की भूमिका बहुत अहम है। मुक्त बाजार में यकीन
    रखने वाले अधिकांश आधुनिक विचारकों की तरह स्मिथ का भी यह मानना था कि
    सरकार को अनुबंधों के लिए दबाव बनाना चाहिए और नई सोच और आविष्कारों को
    प्रोत्साहित करने के लिए पेटेंट और कॉपीराइट भी देना चाहिए। उनका यह भी
    मानना था कि सरकार को सड़क और पुलों जैसे कामों को अपने पास ही रखना
    चाहिए, जो उनकी राय में निजी लोग अच्छी तरह से मुहैया नहीं करा पाएंगे।
    मजे की बात यह है कि वे यह भी चाहते थे कि इन सुविधाओं का इस्तेमाल करने
    वालों से इस आधार पर वसूली की जानी चाहिए कि उन्होंने इसका कितना
    इस्तेमाल किया। यानी ज्यादा इस्तेमाल करने वाले से ज्यादा वसूली। स्मिथ
    और आधुनिक विचारकों में एक मुक्त बाजार को लेकर सबसे बड़ा अंतर यह है कि
    स्मिथ प्रतिकार दरों (रिटेलियटरी टेरिफ्स) के समर्थक थे।

    उनकी राय में दूसरे देशों की ऊंची दरों को कम करने में प्रतिकार करने का
    अच्छा असर होगा। उन्होंने लिखा था, 'एक अच्छे विदेशी बाजार की बेहतरी,
    कुछ समय के लिए कुछ सामान विशेष के लिए ज्यादा कीमत चुकाने की अस्थायी
    असुविधा की क्षतिपूर्ति कर देगी।' स्मिथ के कुछ विचार उनकी कल्पनाशक्ति
    की व्यापकता को प्रदर्शित करते हैं। आज वाउचरों और शालेय चयन कार्यक्रमों
    (स्कूल चॉइस प्रोग्राम्स) को सार्वजनिक शिक्षा के ताजातरीन सुधारों की
    संज्ञा दी जाती है। लेकिन एडम स्मिथ ने तो इस विषय की चर्चा 200 साल से
    भी ज्यादा पहले कर दी थी।

    अगर लाभार्थ संस्थानों पर निर्भर छात्रों को अपनी पसंद के कॉलेजों के चयन
    की छूट दी जाए तो इस आजादी से विभिन्न कॉलेजों में भी बेहतरी के लिए कुछ
    प्रतिस्पर्धा का भाव देखने को मिलेगा। इसके विपरीत हर एक कॉलेज से दूसरे
    कॉलेज जाने के इच्छुक छात्रों को रुकने पर मजबूर करने वाला कानून इस
    प्रतिस्पर्धा के भाव को समाप्त कर देगा।

    ऑक्सफोर्ड (1740-46) में अपने छात्र जीवन में आए अनुभवों ने, जहां वे
    शिकायत करते थे कि प्रोफेसरों ने पढ़ाने का नाटक तक करना छोड़ दिया है, एडम
    स्मिथ का हमेशा के लिए ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज से मोहभंग कर दिया था।
    स्मिथ का लेखन न केवल अर्थशास्त्र के विज्ञान की पड़ताल करता है, बल्कि यह
    देशों को अपने संसाधनों को समझने में एक पॉलिसी गाइड की तरह भी था। स्मिथ
    का मानना था कि खुली प्रतिस्पर्धा के माहौल में ही सर्वश्रेष्ठ आर्थिक
    विकास हो सकता है। एक ऐसा माहौल जहां सर्वव्यापी 'प्राकृतिक नियम' से
    तालमेल रखा जाता हो। चूंकि स्मिथ उनके काल तक के सबसे ज्यादा व्यवस्थित
    और व्यापक अध्ययनकर्ता थे उनकी आर्थिक सोच मान्य अर्थशास्त्र का आधार बन
    गई। और चूंकि किसी अन्य अर्थशास्त्री की तुलना में उनकी सोच ज्यादा काल
    तक टिकी रही, इसलिए एडम स्मिथ को अर्थशास्त्र के विज्ञान का आदि और अंत
    (अल्फा एंड ओमेगा) कहा जा सकता है।

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    एडम स्मिथ के चुनिंदा लेखन

    एन इन्वायरी इनटू दि नेचर एंड कॉजेस ऑफ दि वेल्थ ऑफ नेशंस, एडविन केनन
    द्वारा संपादित, 1976
    दि थ्योरी ऑफ मोरल सेंटीमेंट्स, डी.डी. रैफेल और ए.एल. मैकफी द्वारा संपादित, 1976

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  9. भारत और वैश्विक बिरादरी इस बात को लेकर चर्चा करने लगे हैं कि जिस
    जनसांख्यिकीय मोर्चे पर भारत लाभ की स्थिति में है, देश को इस सदी के
    मध्य तक उसका लाभ उठाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग के
    आंकड़े तो वास्तव में यह दर्शाते हैं कि वर्ष 2040 तक दक्षिण एशिया की
    कुल जनसंख्या में 15 से 64 साल की आयु वर्ग के कामकाजी समूह की
    हिस्सेदारी बढऩे वाली है और नवनिर्माण के दौर से गुजर रहे अफगानिस्तान
    में वर्ष 2075 तक ऐसा हो पाएगा।

    असल चुनौती इस आबादी को पोषण और शिक्षा के जरिये बेहतर नागरिक के रूप में
    ढालने की है। यह कुछ उसी तरह से है कि बचत कहीं उत्पादक निवेश के बजाय
    गैर निष्पादित आस्तियों में न तब्दील हो जाए जैसा रुझान भारतीय बैंकिंग
    तंत्र में वक्त के साथ निरंतर बढ़ता जा रहा है।

    साथ ही साथ दक्षिण एशिया में हर कहीं गांव से शहर की ओर विस्थापन में भी
    तेजी आएगी और वर्ष 2050 तक भारत में शहरी आबादी 50 फीसदी के स्तर पर
    पहुंच जाएगी और इसके साथ ही स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बुनियादी ढांचों को
    बेहतर करने की चुनौती मुंह बाए खड़ी होगी-और इस चुनौती से निपटने की
    जरूरत भी होगी।

    इस जरूरत के लिए भारत में वित्तीय बंदोबस्त कौन करेगा? भारत में वर्ष
    2010 के दौरान रोजाना 10 से 100 डॉलर खर्च करने वालों की संख्या कुल
    आबादी के 5 फीसदी के बराबर थी जबकि श्रीलंका में यही आंकड़ा 20 फीसदी के
    स्तर पर था। दूसरी बात कि इस छोटे से आर्थिक अभिजात्य वर्ग के लिए तब तक
    पोषण और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी ढांचे के लिए खर्च करना बेहद मुश्किल
    होगा जब तक कि यह सुनिश्चित न हो जाए कि एक-एक पैसा सही जगह पर खर्च हो
    रहा है। कुल मिलाकर बाल पोषण और स्वास्थ्य की दशा बेहद दयनीय है।

    वर्ष 2005-06 के दौरान ग्रामीण इलाकों में 3 साल से कम उम्र के 45 फीसदी
    बच्चों की स्थिति बहुत खतरनाक थी, जबकि 40 फीसदी से अधिक कम वजन के थे और
    20 फीसदी से अधिक बच्चे नहीं रहे। तीसरी बात यही है कि शहरी इलाकों में
    तस्वीर एकदम उलट रही। वहां 10 से 20 फीसदी बच्चों की हालत ही खराब कही जा
    सकती थी।

    इन नतीजों को मां की शिक्षा ने काफी प्रभावित किया। जिन माताओं ने 10वीं
    तक की भी शिक्षा हासिल नहीं की उनके 45 फीसदी बच्चे खतरनाक स्थिति में
    पहुंच गए, 50 फीसदी का वजन सामान्य से कम रहा जबकि 25 फीसदी नहीं रहे।
    वहीं जिन माताओं को भली-भांति शिक्षा मिली उनके लिए ये आंकड़े 30 से 60
    फीसदी तक कम खराब रहे, निश्चित रूप से यह एक बड़ा अंतर है। शिक्षा से
    जुड़े आंकड़े कम खतरनाक लगते हैं। देश के शहरी और ग्रामीण इलाकों में 6
    से 10 वर्ष की आयु के सभी बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए स्कूल जाते हैं।
    कक्षा 6 से 8 के स्तर पर ग्रामीण इलाकों के 80 फीसदी और शहरी क्षेत्रों
    के 90 फीसदी बच्चे स्कूल जाते हैं, कक्षा 9 से 10 के लिए ग्रामीण
    क्षेत्रों में यही औसत 60 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 80 फीसदी से ऊपर
    है जबकि 40 फीसदी ग्रामीण और 60 फीसदी शहरी बच्चे 11वीं और 12वीं की
    पढ़ाई करते हैं।

    चौथी बात कि शिक्षा के बढ़ते स्तर के साथ ही लड़कियों की हिस्सेदारी कम
    होती जाती है जो लड़कों की तुलना में 5 से 15 फीसदी तक कम होती जाती है
    लेकिन यहां पर हालात उतने बुरे भी नहीं है जैसा कि अंदाजा लगाया जाता है।
    स्कूलों में दाखिले से जो फायदा होता दिखता है वह शिक्षा जारी न रख पाने
    के रुझान से काफूर हो जाता है। बढ़ती उम्र के साथ शिक्षा के साथ मोहभंग
    का स्तर भी बढ़ता जाता है।

    शिक्षा को जारी न रख पाने की वजह बेहद कष्टदायी हैं। सबसे बड़ी वजह पैसों
    की तंगी और कम दिलचस्पी ही है। साथ ही साथ जल्द से जल्द काम शुरू करना और
    शिक्षा के जरूरी स्तर को हासिल करने जैसे कुछ और कारण भी हैं। वहीं
    लड़कियों की पढ़ाई जारी न रख पाने की दो वजहें सामने आती हैं-एक तो
    उन्हें शादी की वजह से पढ़ाई छोडऩी पड़ती है वहीं माता-पिता भी लड़कियों
    की शिक्षा में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते। भले ही भारतीय बच्चे पढ़ाई
    के लिए दाखिला ले रहे हैं लेकिन उनमें से कई को पढ़ाई पूरी होने से पहले
    ही उस पर विराम लगाना पड़ता है। लड़कों के लिए रोजी-रोटी का सवाल खड़ा
    होता है और ऐसे में उन्हें रोजगार के लिए पढ़ाई छोडऩी पड़ती है तो शादी
    के कारण लड़कियों की पढ़ाई रुक जाती है और इस तरह कम उम्र में ही मां
    बनने का दुष्चक्र चलता रहता है और वही सिलसिला दोहराया जाता है जिसमें
    मां कुपोषण का शिकार हुए बच्चों को पालती हैं।

    मध्याह्न भोजन जैसी सरकारी योजनाओं की वजह से बच्चों को उनकी कई
    चुनौतियों और दुश्वारियों के बावजूद स्कूल में बरकरार रखने में काफी मदद
    मिली है लेकिन जो गुणवत्ता शिक्षा को दिलचस्प बनाती है, वह भी स्कूल से
    मोहभंग की बड़ी वजह बन रही है। कई सर्वेक्षण और भी व्यापक खुलासे करते
    हैं। कई आंकड़े यही सुझाते हैं कि पोषण और शिक्षा के मौजूदा स्तर से
    जनसांख्यिकी लाभ का फायदा उठाना संभव नहीं हो पाएगा।

    अगर शिक्षा की मात्रा से अलग हटकर उसकी गुणवत्ता की बात करें तो पश्चिमी
    मानदंडों के हिसाब से उसे संदिग्ध दृष्टि के साथ देखा जाता है, यहां तक
    कि यह बात संपन्न बच्चों पर भी लागू होती है। पाठ्यक्रम, कक्षा में पढ़ाई
    और परीक्षाओं के लिए बेहद सामान्य मानकीकरण किए गए हैं। यहां तक कि एक ही
    राज्य में विद्यालय अलग-अलग तौर तरीके अपनाते हैं। एक व्यापक अपेक्षा यही
    की जाती है कि छात्रों को स्वतंत्र या नवीन तरीके से सोचने के बजाय रटन
    विद्या पर ज्यादा जोर देना चाहिए।

    यहां सवाल यही उठता है कि क्या हम रटन विद्या पर जोर देने की स्थिति को
    बदल पाएंगे ताकि छात्र खुद अपनी एक सोच विकसित कर सकें? क्या वे किसी
    पेंटिंग की तारीफ कर सकते हैं या फिर स्कूल से बाहर कोई किताब पढ़कर उसका
    आकलन कर सकते हैं? क्या उन्हें खुद को व्यक्त करने का मौका दिया जाएगा,
    भले ही वे चिल्लाकर ही ऐसा करना चाहें लेकिन इसके लिए उन्हें घुड़कना
    नहीं होगा? क्या वे अपनी कक्षा में अध्यापक के पढ़ाने की शैली की आलोचना
    कर सकते हैं?

    ऊंची उपलब्धि हासिल करने वाले छात्रों का प्रशंसागान और ढीले ढाले रवैये
    से विषमता झलकती है-कुल मिलाकर बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले छात्रों को
    बढ़ावा देना स्कूल की ख्याति को ही बढ़ाएगा। हालांकि अधिकता मध्यम दर्जे
    के छात्रों की ही होती है जो अपने खतरों को दूर करने में ही लगे रहते हैं
    जो न तो स्कूल की साख को बट्टा लगाते हैं और न ही गौरव बढ़ाते हैं। दूसरे
    देशों से क्या सबक मिलता है?

    हम फिर दोहराते हैं कि इसी महीने हमने शिक्षा दिवस मनाया। हमें
    जनसांख्यिकीय मोर्चे पर लाभ की स्थिति बनाने के लिए युद्घस्तर पर काम
    करना होगा। यह केवल मजबूत नियंत्रण के साथ ही फलीभूत हो सकता है जहां
    गड़बडिय़ों के लिए कोई जगह न हो। सार्वजनिक व्यय की उत्पादकता बेहतर करनी
    होगी और स्कूलों को मिलने वाली राशि की उचित निगरानी रखनी होगी कि कहीं
    कोई स्कूल किसी बच्चे को मध्याह्न भोजन से वंचित तो नहीं रख रहा है। किसी
    चीज को पाने और खोने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। इसलिए हमें तय करना होगा
    कि कौन सा रास्ता अख्तियार करना होगा।

    - पार्थसारथी शोम
    साभार: बिज़नेस स्टैंडर्ड

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  10. आज भारत की बड़ी समस्याओं में बढ़ती जनसंख्या, महंगाई, भ्रष्टाचार प्रमुख
    हैं। अगर युवाओं के दृष्टिकोण से बात की जाए तो सबसे बड़ी समस्या है
    बेरोजगारी। बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर भी युवा नौकरी के लिए दर-दर भटक रहे
    हैं।

    वे डिग्रीधारी, जो नौकरी न मिलने पर नकारात्मक बातें करते हैं, उनकी
    हकीकत यह है कि उनमें जॉब पाने की योग्यता ही नहीं होती। कम नंबरों से
    जैसे तैसे बड़ी डिग्रियां लेने वाले इन युवाओं का व्यावहारिक ज्ञान का
    स्तर बहुत कम होता है और इसीलिए वे कॉम्पिटिशन में पिछड़ जाते हैं। दूसरी
    तरफ योग्य व्यक्ति अपने ज्ञान के बल पर इन तथाकथित पढ़े लिखे लोगों से
    आगे निकल जाते हैं।

    युवाओं की शिकायत है कि उन्होंने जो डिग्री हासिल की है, उसके अनुरूप
    उन्हें जॉब नहीं मिल रहा है। ‍डिग्रियों का अंबार लगाने के बाद भी
    सरकारी, निजी क्षेत्रों में नौकरियां नहीं हैं। सरकारी नौकरियों के बारे
    में युवाओं से पूछा जाए तो कहते हैं कि वहां तो भाई-भतीजावाद चलता है,
    रिश्वत लेकर नौकरियां बांटी जाती है, लेकिन असलियत यह है कि काबिल
    व्यक्ति को कोई एक जगह जॉब देने से मना कर देगा, लेकिन उसके लिए अवसरों
    की कमी नहीं हैं।

    निजी क्षेत्रों की बात की जाए तो कहते हैं वहां पर शोषण अधिक किया जाता
    है। कंपनी अपनी शर्तों पर नौकरियां देती हैं, लेकिन मैन पॉवर ग्रुप
    इंडिया की सालाना रिपोर्ट उन युवाओं की लिए कड़वी सचाई है जो डिग्री के
    बाद भी नौकरियां नहीं मिलने की शिकायत कर रहे हैं।

    मैनपॉवर ग्रुप इंडिया की सालाना रिपोर्ट के अनुसार देश में करीब आधे
    नियोक्ता अपनी कंपनियों में महत्वपूर्ण पदों को भरने में कठिनाई महसूस कर
    रहे हैं। इसका कारण संबंधित पदों के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं मिल पाना
    है।

    सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी), मार्केटिंग, जनसंपर्क तथा संचार जैसे
    क्षेत्रों के नियोक्ताओं को योग्य प्रतिभा तलाशने में सर्वाधिक दिक्कत हो
    रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश में 48 प्रतिशत नियोक्ताओं को खाली पद
    भरने में कठिनाई हो रही है। कंपनियों को अपने पदों के लिए योग्य व्यक्ति
    नहीं मिल रहे हैं। हालांकि यह प्रतिशत पिछले साल के मुकाबले 19 प्रतिशत
    कम है लेकिन वैश्विक औसत 34 प्रतिशत से अधिक है।

    अगर वैश्विक स्तर पर बात की जाए तो प्रतिभाओं के मामले में अमेरिका,
    ऑस्ट्रेलिया तथा जापान जैसे विकसित देशों के मुकाबले भारत की स्थिति
    बेहतर है। सर्वे में प्रतिभा की कमी के मामले में जापान पहले स्थान पर
    रहा। वहां 81 प्रतिशत नियोक्तयों ने प्रतिभा में कमी की बात कही। यह
    लगातार दूसरा वर्ष है जब जापान इस मामले में पहले स्थान पर रहा।

    दूसरे स्थान पर 71 प्रतिशत के साथ ब्राजील और तीसरे स्थान पर बुल्गारिया
    है जहां 51 प्रतिशत नियोक्ताओं को प्रतिभा की तलाश है। चौथे स्थान पर
    ऑस्ट्रेलिया (50 प्रतिशत) रहा। भारत न्यूजीलैंड के साथ छठे स्थान पर है।
    जहां 48 प्रतिशत नियोक्ताओं को कंपनी के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं मिल
    रहे हैं।

    इस रिपोर्ट से यह तो कहा जा सकता है कि भारत में नौकरियों की कमी नहीं
    है। बस युवाओं को इन पदों और ‍नौकरियों के योग्य बनना होगा। सिर्फ डिग्री
    हासिल कर सफल करियर नहीं बनाया जा सकता, बल्कि पद के अनुरूप स्वयं को
    योग्य भी बनाना होगा।

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  11. अगर आप भारत गैस ऑनलाइन बुक करना चाहते हो तो , सब से पहले आप को इस
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  12. जैसे सुंदरता के लिए मस्तक पर लगती है बिंदी ,
    बैसे शिखर पर चमके गई मेरी भाषा हिंदी ,

    जैसे फूलो में उत्तम है गुलाब ,
    जैसे शिक्षा में उत्तम है किताब ,
    जैसे सुंदरता में उत्तम है बिंदी ,
    ऐसे ही भाषा में उत्तम है हमारी हिंदी ,

    Name: Sneha mutreja

    Email: sneha.mutreja42@gmail.com


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  13. आज हम चर्चा कर रहे है की वेबसाइट जा ब्लॉग में फेविकोणं कैसे लगाते है ,
    हम आप को एक वेबसाइट बता रहे है जिस से की आप अपना खुद का फेविकोणं बना बी सकते है और इस वेबसाइट पर बोहत से फेविकोणं है जिसे आप अपनी पसंद से वेबसाइट जा ब्लॉग पर लगा सकते हो
    आप इस वेबसाइट पर लोगिन करो .
    http://www.favicon.cc/

    इस से पहले आप जान लो की फेविकोणं क्या होता है .
    वेबसाइट के नाम के साथ लगने वाला आइकॉन

    आप इस वेबसाइट पर लोगिन करो .

    http://www.favicon.cc/


     लोगिन करने के बाद Create New Favicon पर क्लिक करे .
    आप के पास एक बॉक्स ओपन होगा जिस में आप अपनी पसंद का फेविकोणं बना सकते हो .


     डाउनलोड करने के बाद इस फेविकोणं को आप अपनी वेबसाइट जा ब्लॉग पर लगा सकते है


    ..देखो कैसे.. ब्लॉग पर लगाने के लिए

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